हरदा की एक सुनसान गली में कल रात एक सरकारी चपरासी ने अपने जीवन का आखिरी मैच खेल लिया….और हार गया।
मैच का मैदान उसका किराए का कमरा था, हथियार एक घरेलू गैस सिलेंडर, और दर्शक… कोई नहीं।
35 साल के लक्ष्मीनारायण केवट…. खेल एवं युवक कल्याण विभाग का कर्मचारी….बीती रात लगभग साढ़े नौ बजे अपने कमरे में मृत मिले। सिलेंडर का रेगुलेटर खुला था, रबर की नली सीधे उनके मुंह में। गैस ने कुछ ही मिनटों में उनका शरीर कड़ा कर दिया। पुलिस को कोई सुसाइड नोट नहीं मिला, लेकिन शुरुआती जांच कहती है….ये कहानी कर्ज, ऑनलाइन गेम और एक डूबते आदमी की है।
जिंदगी के स्कोरबोर्ड पर घाटा ही घाटा
लक्ष्मीनारायण मूल रूप से भोपाल के रहने वाले थे, पत्नी और पांच साल की बेटी के साथ हरदा में किराए के घर में रहते थे। 2016 में नौकरी लगी, सीहोर में पोस्टिंग हुई, फिर तीन साल पहले ट्रांसफर होकर हरदा आए।
लेकिन स्थाई तनख्वाह भी उस समय बेकार हो जाती है, जब आदतें आय से बड़ी हो जाएं। परिवार और सहकर्मियों के मुताबिक, वो पूरे दिन मोबाइल में उलझे रहते…. शायद किसी ऑनलाइन गेम में। खेल ऐसा, जिसमें जीतने के लिए असली पैसे लगाने पड़ते हैं… और हारने पर सिर्फ कर्ज बढ़ता है।
कर्जदारों की परछाइयों से घिरा हुआ
भाई कैलाश मांझी बताते हैं…. लक्ष्मीनारायण लाखों के कर्ज में थे। उधार लेने की हद तक फंस चुके थे कि अब चुकाने का रास्ता नहीं दिख रहा था। पत्नी मायके गई हुई थी, बच्ची साथ थी। और इस खाली कमरे में, वो शायद आखिरी बार ‘लॉग-इन’ हुए….इस बार मौत के खेल में।
एक मौत, जो सिर्फ व्यक्तिगत नहीं
ये महज़ एक व्यक्ति की हार नहीं, बल्कि उस अदृश्य महामारी का हिस्सा है, जिसमें ऑनलाइन गेमिंग की लत, डिजिटल कर्ज, और मानसिक दबाव चुपचाप लोगों को खा रहा है।
सरकारें युवा पीढ़ी को ‘खेलो इंडिया’ के नारे देती हैं, लेकिन ऑनलाइन लत के खिलाफ न नीति है, न चेतावनी का असर।
हरदा में कल रात जो हुआ, वो हमें याद दिलाता है…. गेम वर्चुअल होते हैं, लेकिन उनके नुक़सान असली और घातक होते हैं। और मौत भी असली होती है… इसमें कोई गेम नहीं होता।
मुहम्मद अनवार बाबू